Emotional sharing about film Jhund
#Jhund
Spoiler alert. मगर यह फिल्म इतनी विशाल है, की एक बार emotional sharing से कुछ नहीं पता चलने वाला। फिल्म देखो तो जानों।
दो दिन पहले देखी थी फिल्म, और अभी तक नजर के सामने आ रहे हैं कुछ दृश्य जो दिल और दिमाग दोनों को छू गए ।
सैराट फ़िल्म में जिसने आर्ची का किरदार निभाया, उस प्रसिद्ध अभिनेत्री ने #झुंड़ में एक आदिवासी लड़की का किरदार निभाया हैं।
उसके घर जब विजय सर और उनकी पत्नी जाते हैं, उस यात्रा के सारे प्रयासों को कैसे दिखाया है। वहां दिखता है असली भारत और भारतीय लोगों के असली मुद्दे।
लड़की के घर पहुंचने के बाद उसे बताते हैं की फूटबॉल खेलने के लिए उसे विदेश जानेवाली टीम में शामिल किया हैं और उसका पासपोर्ट बनाओ। सर की पत्नी पैसे देती हैं, समझदारी से।
मगर लड़की को पासपोर्ट बनवाने में जो कागज़ जरूरी है उन्हें बनाते किस तरह अपने पिता के साथ यहां वहां भटकना पड़ता है यह जो दिखाया, उन दृश्यों ने आंखों में पानी भर आया। उसे जो व्यवस्था नचा रही थी वह भी है दिखाया और कुछ सीधे लोगों ने उस लड़की के कागजात बनवाने में कैसे सरलता से की है मदद, यह भी दिखाया है। लेकिन समय या शब्दों की बेवजह बर्बादी, जरा भी न करते हुए।
उस लड़की के साथ मुझे लाखों लोग दिखें, जिनके पास कागज़ होने न होने से उनके भारतीय होने पर संदेह व्यक्त किया जा रहा है आजकल।
एक धून जब लड़का बजाता है, उससे पहले वह और उसके साथी अपनी जीवनी कैसे सुनाते हैं । और उसके बाद जब 'सारे जहां से अच्छा' की धून बजी, तो बहुत भावाकुल और विवश लगा मुझे।
उसी सीन के दौरान छोटे बच्ची का एक सवाल, 'लेकीन भारत क्या है?', जिसका उत्तर नहीं दिया सर ने चौंक गए, की क्या बताएं । फिल्म ऐसे बुनियादी सवालों के जवाब आगे सूचीत करती हैं, अपने खास सिनेमा की भाषा द्वारा।
जब बस्ती का दुकानदार जो दुकान में फुले, आंबेडकर जी की तस्वीरें लगाकर रखा है, लेकीन आंबेडकर जयंती पर केवल जश्न मनाया जाएगा, कुछ सुधार नहीं होता, इसलिए, झुंड़ के किरदार, बस्ती के बच्चों को चंदा देने से इंकार करता है।
मगर बच्चे फूटबॉल खेलने के लिए विदेश जाएंगे यह खबर होने पर खुद आकर ढेर सारे पैसे देने आता है। उससे पैसे लेने से इंकार करनेवाले सर, जब टीम का कॅप्टन इशारा करता है, की ले लो इनसे पैसे, विश्वास करने लायक है यह आदमी (सिर्फ इशारों में यह सब होता है) और सर उससे पैसे स्वीकार करते हैं।
वह निशब्द पल, सिर्फ नज़रों से संवाद, तब जितने सक्षम अमिताभ बच्चन है, उतना ही बेहतर है टीम का कॅप्टन। क्या फ्रेम है वह।
सरल, सीधे, समझ को समझानेवाले, डायलॉग का उपयोग और बहुत ही खूब कॅमेरे का उपयोग, बॅकग्राऊंड म्युझिक जरा भी लाऊड नहीं, जब दृश्य या बोला गया वाक्य बहुत शक्तिशाली हो तब। वाह!
खेल के मैदान में बाइक के पेट्रोल की टंकी को उल्टा रखकर सिंदूर लगाकर रखा हुआ मंदीर दूसरी जगह पर लगाया जाता है ताकी मैदान पूरा मिले।
जब आंबेडकर जयंती पर जश्न मनाते जवान बच्चे, झटके से ॲंम्ब्युलन्स के लिए रस्ता बनाकर देने की सोच सहजता से दिखाते हैं, तब भी भावुक हो गईं थीं मैं, और आद आ रहे थे कितने सारे ट्रैफिक जाम, जब ॲंम्ब्युलन्स के लिए रस्ता बनाने की सभ्यता से परहेज़ रखते हैं हमारे शहरों के शरीफ़ कहलानेवाले लोग ।
जाहिर है, हिंदी सिनेमा की लगी ढेर भीड़ में, "झुंड़" यह सिनेमा बिलकुल अलग, बेहतरीन सिनेमा के अंदाज में हटके से नजर आता है।
बेजोड़ बॅलन्स हैं हर फ्रेम में।
सिनेमॅटोग्राफी तो जबरदस्त!
एक बार फिर तो जरूर देखूंगी ही, और जब streaming platforms पर आएगी तब भी बार बार इस फिल्म के हिस्से देखते रहूंगी बीच-बीच में।
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